बीमार पड़े व्यक्ति को सिर्फ दवाइयों से ठीक नहीं किया जाता जरूरत होती है अपनों की प्यार और परवाह की !

आज कल रिश्ते समय के साथ बहुत नाजुक बनते जा रहे है, रिस्तो में खटास आने लगते है. जरा सी नोकझोक पर लोग सालो पुराने रिस्तो को पल भर में भूल जाते है और शायद इसलिए आज के समय में विश्वास का आभाव है, लोगो का प्यार से भरोसा उठ गया है, लेकिन आज भी कई ऐसे उदाहरण है जो हमें मोटिवेट करते है आज हम एक ऐसे ही प्यार,विश्वास से भरी कहानी आपके सामंने रख रहे है. ये कहानी है शिव और शुक्ला की जिसे हमें सीखना चाहिए की कैसे एक दूसरे का सहारा बनाना चाहिए मुश्किल समय में।
ये उन दिनों की बात है जब शिव प्रसाद भट्टाचार्य भारतीय सेना में अफसर थे। शिव की मुलाकात शुल्का से जून 1955 में हुई, शुल्का उस समय कॉलेज की छात्रा थी, वो कोलकाता के मशहूर प्रेसिडेंसी कॉलेज से हिस्ट्री में स्नातक कर रही थीं। कुछ सप्ताह पहले ही, शुक्ला ने शिव की एक तस्वीर देखी थी और उसी समय उन्होंने निश्चय कर लिया था की वो शादी करेंगी तो शिव से ही. शुक्ला ने शिव की वर्दी में तस्वीर देखी इसके साथ ही एक पारिवारिक मित्र की तारीफ से शुक्ला का फैसला और मजबूत हो गया.
लेकिन शादी तय हो उसे पहले ही शिव 3 बार बीमार पड़ गए। दोनों की मुलाकात हुई. उन्होंने शुक्ला से साफ शब्दों में कहा की तुम किसी के साथ शादी कर लो. शिव नहीं चाहते थे की शुक्ला के सपने इनकी बीमारी में ही उलझ कर रह जाए उन्होंने आगे कहा कि उनकी बीमारी उनकी तरक्की और भविष्य में रुकावट बन सकती थी। लेकिन शुक्ला ने अपने फैसाल नहीं बदला वो अपने फैसले में अडिग रही उन्होंने शिव से साफ -साफ कह दिया की वो उनका इंतजार करेंगी। जब तक शिव पूरी तरीके से ठीक न हो जाए तब तक शादी नहीं करेंगी, जब शिव ठीक हो जायेंगे तब शादी करेंगी
कहते है न जब आपका जीवनसाथी साथ देने वाला हो तो आप मुश्किल से मुश्किल पड़ाव पार कर लेते है,ठीक ऐसा ही हुआ शिव और शुक्ला के जीवन में शिव प्रसाद भट्टाचार्य ठीक हो गए। फरवरी 1956 में दोनों हमेशा के लिए एक दूसरे के हो गए उनका विवाह हो गया. इनका पारिवारिक जीवन सुखद रहा. शिव और शुक्ला दो युद्ध, ग्यारह शहर और तीन बच्चों के बाद, 1975 में यह परिवार स्थायी रूप से कोलकाता में बस गया। उन्होंने 1983 में अपना घर लिया।जिसे शुक्ला से ‘स्थिति’, यानी “आराम की जगह”नाम दिया। समय के साथ बच्चे बड़े हो गए 1995 तक उनके बच्चे अपने-अपने रास्ते निकल चुके थे, बेटियाँ अपने परिवारों में बस गई थीं और बेटा दिल्ली में नौकरी करने लगा था। लगभग 40 साल की शादीशुदा ज़िंदगी के बाद, सब कुछ शांत और सहज लग रहा था।
दोनों से एक दूसरे के साथ 40 साल बिता दिए सब कुछ ठीक था लेकिन कभी कभी सब कुछ ठीक होने का मतलब ये नहीं होता है की वो असल में ठीक है, अचानक कुछ ऐसे बदलवा देखने की मिलते है जिसकी हमें उम्मीद तक नहीं होती है ऐसा ही कुछ बदलाव अब शुक्ला में शिव को दिखने लगे थे. शिव ने शुक्ला में बदलाव महसूस किये जैसे के कभी नाश्ता बनाना भूल जाना, कभी गैस जलती छोड़ देना,उनका व्यवहार धीरे -धीरे बदलने लगा था. एक साल बाद डॉक्टर के पास गए, तब भूलने का असली कारण का पता चला की शुक्ला (शिव की धर्मपत्नी) को गंभीर बीमार अल्जाइमर है
अल्जाइमर एक ऐसा रोग है जिसमे लोग चीज़ो को भूलने लगते है, अगर हम इसके लक्षणो के बारे में बात करे तो नई जानकारी भूलना, चीज़ों को गलत जगह रखना, सही शब्द सोचने में परेशानी, भटकाव, खराब निर्णय लेना, और मनोदशा व व्यवहार में बदलाव शामिल हैं, जो शुरू में छोटे लगते हैं और समय के साथ गंभीर होते जाते हैं। जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती है, व्यक्ति परिचित लोगों और स्थानों को पहचानने में कठिनाई महसूस करने लगता है और उसे दैनिक जीवन की गतिविधियों में सहायता की आवश्यकता होती है। इसी बीमारी से शुक्ला ग्रसित थी. उस समय शिव की उम्र 70 साल और शुक्ला की 60 साल थी।
शिव के बेटे जॉय बताते है
शुरुआत में पापा (शिव) शुक्ला से परेशान हो जाते थे क्योकि मम्मी (शुक्ला) रोज़ की दिनचर्या भूल जातीं थी तो उन्हें गुस्सा भी आ जाता था।लेकिन धीरे -धीरे उन्होंने शुक्ला को समझने लगे कि यह कोई भूल-चूक नहीं, बल्कि बीमारी है. उन्होंने सीखा कि सवाल करने या गुस्सा करने से मम्मी और अपमानित व डरी महसूस करती हैं।”धीरे धीरे शिव ने धैर्य और करुणा से शुक्ला का साथ देना सीख लिया।अल्ज़ाइमर बढ़ने पर वे कभी घर से बाहर भटक जाया करती थी, और शिव को नज़र रखना मुश्किल हो जाता था । इसके साथ ही उन्हें खुद भी ग्लूकोमा हो गया था। लेकिन फिर भी, प्यार, सब्र और हिम्मत से उन्होंने पत्नी की बीमारी संभाली और उन्हें सुकून देने का हर तरीका खोज निकाला।
ये सब से पता चलता है की साल 1955 में लिया गया शुक्ला का फैसला बिलकुल सही था,अल्जाइमर जैसी बड़ी बीमारी से जूझ रहे शक्स को केवल दवाइयों और आराम की नहीं, बल्कि अपनों के साथ और प्रेम से ठीक किया जा सकता है। शिव ने इस बारे में अपने जीवन के अनुभवों पर किताब भी लिखी, ताकि इस बीमारी से जूझ रहे लोगों के करीबियों को थोड़ी आसानी हो और वो अपनों को समझ सके! की चीज़ो को भूलना लोगो की आदत नहीं बल्कि ये बीमारी होती है,समय रहते इसका इलाज जरुरी होता है इसके साथ ही परिवार का अपनों का प्यार बहुत जरुरी होता है.